राष्ट्र भक्ति और सद्भाव के पुरोधा गुरु गोविंद सिंह: काव्या त्रिभूति,धामपुर, बिजनौर।
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सिख धर्म के दशमेश -खालसा पंथ के संस्थापक,महान योद्धा, कवि व संत गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म -22 दिसंबर 1662 में गुरु तेग बहादुर व माता गुजरी के यहां पटना साहिब बिहार में हुआ था। मात्र 9 वर्ष की अवस्था में पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी के शहीद होने के उपरांत इन्होंने गुरु की पदवी को संभाला तथा सिखों के लिए पांच ककार को अनिवार्य बनाया। 14 अप्रैल 1699 में इन्होंने बैसाखी के दिन खालसा पंथ की स्थापना की तथा “ज्ञान ही गुरु है ” यह कहकर गुरु ग्रंथ साहब को गुरु की उपाधि दी। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि अहंकार को मिटाकर अच्छे कर्मों से ही ईश्वर को प्राप्त करना संभव है।जीवन में शांति के लिए नाम सुमिरन अनिवार्य है |साथ ही मदिरा पान के निषेध पर जोर दिया।
इनका मानना था कि मानवता की रक्षा के लिए सर्वस्व न्योछावर किया जा सकता है। पूरे परिवार का बलिदान इस बात का जीवंत उदाहरण है। इन्होंने युद्ध को समस्या का समाधान नहीं, बल्कि अंतिम विकल्प बताया।
इनकी शिक्षाओं को यदि वर्तमान परिपेक्ष में अपनाया जाए तो हमारी युवा पीढ़ी ;जो नशे के दलदल में फंस रही है, कई हद तक बचाया जा सकता है।आज का समाज अहंकार से वशीभूत होकर, व्यक्ति स्वयं तक सीमित होता जा रहा है तथा रिश्तो में दरारे और दूरियां आ रही हैं। इनका समाधान किया जा सकता है।
नाम सुमिरन और धर्म के मार्ग पर चलकर सत्कर्मों से न केवल व्यक्ति अपना बल्कि समाज का भी कल्याण कर सकता है। इन्होंने मानवता के धर्म को सभी धर्म से ऊपर बताया है।
आज के समाज में छोटे-छोटे मुद्दों पर ही व्यक्ति आक्रांत हो जाता है। शांत चित् से सुमिरन को अपनाकर व्यक्ति की ऊर्जा को देश हित ,मानव कल्याण में लगाया जा सकता है जोकि बेकार ही दूसरे लोगों को नीचा दिखाने तथा युद्ध में नष्ट हो रही है।आज भी गुरु गोविंद सिंह हम सबके लिए सूक्ष्म रूप में प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं।वे सदा प्रासंगिक बने रहेंगे।उनके पदचिन्हों पर चलना ही हमारी उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
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